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नई दिल्ली, 20 जुलाई। दिल्ली में एक समय था जब कांग्रेस हाशिये पर आ चुकी थी। फिर उसी समय एक दौर चला महिलाओं की गाथा लिखने का। भाजपा की सुषमा स्वराज मुख्यमंत्री थीं लेकिन अचानक दिल्ली की राजनीति में एंट्री होती है एक ऐसी महिला की जो गैर राजनीतिक बैकग्राउंड से सम्बंधित थी। महिला कोई और नहीं बल्कि दिल्ली में तीन बार सीएम पद पर रहीं शीला दीक्षित थीं। हलांकि दिल्ली आने का सफर कुछ आसान नहीं रहा क्योंकि पंजाब के कपूरथाला में 31 मार्च, 1938 को जन्मी शीला दीक्षित अपनी स्कूलिंग करने के बाद दिल्ली में आगे की पढ़ाई करने आ गई।
शीला दीक्षित का राजनीतिक घराने में एंट्री

शीला दीक्षित ने अपनी शुरुआती पढ़ाई यहां के प्रतिष्ठित स्कूल जीसस ऐंड मैरी काॅन्वेंट से की और इसके बाद दिल्ली विश्वविद्यालय के मिरांडा हाउस से इतिहास में स्नातकोत्तर किया दिल्ली विश्वविद्यालय में एंट्री लेना और राजनीतिक परिवार से इनकी मुलाकात एक मात्र संयोग था क्योंकि यूनिवर्सिटी में इनके सबसे अच्छे दोस्त थे विनोद दीक्षित जो कांग्रेस के बड़े नेता उमाशंकर दीक्षित के बेटे थे और बाद में जब विनोद दीक्षित पढ़ाई कर भारतीय प्रशासनिक सेवा के अधिकारी बने तो शीला दीक्षित ने उनसे शादी कर ली। इस तरह से उनकी एंट्री हुई राजनीतिक घराने में।



उमाशंकर दीक्षित के बारे में कहा जाता है कि यह उन लोगों में शुमार थे जो जवाहर लाल नेहरू के बेहद करीबी थे जिसका उन्हें इनाम भी मिला। वह देश के गृह मंत्री भी बनाये गए। फिर बाद में कर्नाटक और पश्चिम बंगाल के राज्यपाल भी बने। इतना ही नहीं जवाहर लाल नेहरू के बाद इंदिरा गांधी भी उनपर भरोसा करने लगी। शादी के बाद ससुर के काम काज में हाथ बटाना शुरू कर दिया। उनके लिए स्पीच लिखने की आदत इतनी जोर से लगी कि अब राजनीतिक गुण सीखने लगी। वे उमाशंकर दीक्षित के फोन अटेंड करतीं। और इस तरह से कांग्रेस के बड़े नेता भी उन्हें जानने लगे।
जब पहली बार पहुँची लोकसभा



इसी बीच समय आया 84 के दौर का जब पूरा देश इंदिरा की हत्या का शोक मना रहा था और राजीव गांधी सत्ता सम्भाले हुए थे। उनका मैसेज शीला दीक्षित को आया कि उत्तर प्रदेश के कन्नौज सीट से लोकसभा चुनाव लड़ना चाहिए। ससुर और पति के समझाने पर कि यह बड़ा अवसर है, वे राजी हुई और चुनाव जीतकर पहली बार लोकसभा पहुँची। बतौर सांसद अपने पहले ही कार्यकाल में वे केंद्र में मंत्री भी बनीं। वे कन्नौज सीट से 1989 का चुनाव भी लड़ीं लेकिन हार गईं। 1989 की हार के बाद शीला दीक्षित दिल्ली में ही सिमट गईं।

समय आया 1991, जब शीला दीक्षित के ससुर उमाशंकर दीक्षित ने अलविदा कहा और तब तक राजीव गांधी भी नहीं रहे। लेकिन 84 से 1991 तक का समय काफी था शीला दीक्षित के लिए कि वह अपने व्यक्तिगत सम्बंध गांधी परिवार से बना सके। सोनिया गांधी के कहने पर पहले वह इंदिरा गांधी मेमोरियल ट्रस्ट की सचिव बनीं और 1997 में सक्रिय रूप से राजनीति में वापसी हुई।
जब शीला दीक्षित हार गई थीं लोकसभा चुनाव


हालांकि 1998 में पूर्वी लोकसभा सीट से वे 45000 वोटो से चुनाव हारी थीं लेकिन सोनिया का भरोसा ही था कि हार के बावजूद उन्हें दिल्ली कांग्रेस का अध्यक्ष बना दिया गया। उस समय सुषमा स्वराज मुख्यमंत्री थी और प्याज और आलू के दामों ने भाजपा सरकार की कमर तोड़ रखी थी। लोगों की नाराजगी और उसी बीच विधानसभा चुनाव नतीजा भाजपा हार गई और शीला दीक्षित दिल्ली की मुख्यमंत्री बन गईं। इसके बाद वे 2003 का विधनसभा चुनाव भी जीतीं और 2008 का है।

इसके बाद दिल्ली में शुरू हुआ एक अलग ही विकास का दौर। सार्वजनिक परिवहन को सीएनजी आधारित बनाने की पहल और कई सारे फ्लाई ओवर बनाने का श्रेय शीला दीक्षित को ही जाता है। आज केजरीवाल भले ही प्रदूषण को लेकर कई दावे करते हो लेकिन प्रदूषण के विरुद्ध लड़ाई शीला दीक्षित ने ही शुरू की थी। शीला दीक्षित राजनीति के साथ-साथ कूटनीति भी सीख चुकी थी। उन्होंने यह तरकीब निकाला कि कम से कम दिल्ली में उनके समानांतर कोई न रहे।इसलिए उन्होंने कांग्रेस के बड़े चेहरे जगदीश टाइटलर हों या फिर सज्जन कुमार, एचकेएल भगत या रामबाबू शर्मा, जिसने भी शीला दीक्षित के खिलाफ आवाज उठानी शुरू की उन्हें किनारे कर दिया गया।






हालांकि दिल्ली में जब राष्ट्रमंडल खेलों का आयोजन किया गया तो उस समय के तत्कालिन कांग्रेस सरकार के ऊपर आयोजन में गड़बड़ी को लेकर कई सारे आरोप लगे। और अंत में पता चला कि इसमें बहुत बड़े स्तर पर भ्रष्टाचार को अंजाम दिया गया है। अपनी ज़िंदगी की आखिरी समय तक शीला दीक्षित सोनिया गांधी की सबसे करीबी माने जाने वाली नेत्री थी। आज ही के दिन यानी 20 जुलाई 2019 को वे सबको अलविदा कह गई। लेकिन शीला दीक्षित की राजनैतिक अनुभव और उनकी कुशलता पर विपक्षी भी गर्व करते हैं।